ध्यान का अर्थ है चित को निर्विकल्प, निर्विचार, निर्लिप्त अवस्था में स्थापित करना। वास्तविक ध्यान सद्गुरु कुण्डलिनी जागरण के पश्चात् ही संभव है। ध्यान लगाने या सीखने की वस्तु नहीं है। यह तो गुरुकृपा से ही संभव है। ध्यान अंतःस्नान है। ध्यान के माध्यम से माँ कुण्डलिनी की क्रियाओं का आनन्द लिया जाता है। ध्यान करने वाले साधक को बाहर कहीं भटकना नहीं पड़ता है। उसके तीर्थ, व्रत, त्योंहार, देव सभी भीतर ही रमते हैं। ध्यान-साधना से शक्ति झूलते, डोलते और इठलाते शिव से संसर्ग हेतु ऊपर की तरफ उठती है। यहीं शक्ति साधक की प्रत्येक वांछा पूर्ण करती है| नीलबिंदु के दर्शन करवाती है, सिद्धों सी क्षमता देती है, दिव्यदृष्टि प्रदान करती है, नाड़ी का शुद्धीकरण करती है, अष्टसात्विक भाव जगाती है, कमल भेदन कर तृतीयाक्ष खोल देती व अमृतपान करवाती है। ध्यान से मन शुद्ध होते लगता है, वाणी पवित्र होते लगती है, शरीर में असीमित ऊर्जा का संचार होने लगता है, अंतस में प्रेम का स्रोत फूट पड़ता है, चेहरे पर अद्भुत तेज का प्राकट्य होने लगता है।
जब ध्यान सध जाता है तब साधना की परमावस्था की संप्राप्ति हो जाती है और साधक समाधि को, मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ध्यान की निष्पत्ति के रूप में जीवन में सबसे बड़ी उपलब्धि है, समाधि। व्याधि, आधि और उपाधि जब नि:शेष हो जाए तो समाधि घटती है। व्याधि शरीर में प्रकोप जताती है, आधि मानसिकता को प्रभावित करती है और उपाधि मनोविकारों से उपजती है। ध्यान से आधि, व्याधि और उपाधि इन तीनों पर विजय पाई जा सकती है। यदि हम यह सोच लें कि यहीं हमारा अंतिम जीवन है, इसी में सव कुछ पा लेना है तो सद्गुरुकृपा से शिव एव शक्ति हममें समाहित होने को तत्पर मिलेंगे। मार्ग स्वयं ही खुलते चले जाएंगे| गुरु हमें उस द्वार तक उंगुली थामे ले जाने को संकल्पबद्ध है। शिष्यत्व को घटित करना भी गुरू का ही गुरुत्व है, अत: हमें तो सद्गुरु के भरोसे अपनी नैया छोड़ देनी भर है, पार तो उसे ही करना है। शिवपुराण में कहा बनाया है: “नास्ति ध्यानसमं तीर्थ नास्ति ध्यानसमं तप:। नास्ति ध्यानरूपे। यज्ञस्तस्माथ्यानं समाचरेत।।” अर्थात :- ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं, कोई तप नहीं और कोई यज्ञ नहीं। इसलिये प्रमुख संदेश यहि है ध्यान करो भाई ध्यान करो।