सत्संग = सत + संग
सत माने सत्य
संग माने संगति में
सत्संग माने उनके संगति में रहना जिन्होने सत्य को जान लिया है| उनके सानिध्य में जिन्हे आत्मज्ञान हो गया है| सही अर्थों में सत्संग वह सभी चीज़ें है जो सद्गुरु के सानिध्य में हम करते हैं|
वह मन्त्र जप हो सकता है या भजन, प्रवचन हो सकता है या मौन| जो भी सत की उपस्थिति में किया जाय वही सत्संग है| च्योंकि हम भौतिक रूप से हमारे सदूगुरु से दूर हैं, हम शक्तिस्वरूप (सूक्ष्म रूप) में उनकी सानिध्य की प्रार्थना करते हैं| इसी विश्वास से हम हमारे गुरु परंपरा द्वारा बताए गये जप, आरती एवं अनुष्ठान करते हैं| इससे हम सद्गुरु के आशीर्वाद प्राप्त करते हैं जिससे हमारे तन, मन एवं आत्मा की शुद्धि होती है| सकरात्मक दिव्य उर्जा प्राप्त होती हैं जो हम सूक्ष्म रूप से हमारे आचार विचार में निश्चय ही अनुभव करते हैं|
मंत्र जप यह बहुरूपी प्रक्रिया है| उच्चारण से पूर्व हम मन में मन्त्र की रचना करते हैं| तत्पश्चात् हम उसे साकार रूप से गाते या उच्चारण करते हैं| इसके उपरांत हम वही मन्त्र, जो हम एवं दूसरे गाते है, वह सुनते हैं| मंत्र कोई साधारण शब्द या अक्षरों का समन्वय नही है| मंत्र के शब्दों को हमारे सद्गुरु स्वयं की उर्जा से प्रभावयुक्त करते हैं| इसलिए हमें ऐसे ही कोई भी मंत्र जप नही करना चाहिय| जप फलदायी तभी होता है जब वह मंत्र हमें सद्गुरु से प्राप्त होता है|
जप ३ प्रकार से प्रभावित करता हैं| प्रथम मन के भीतर, द्वितीय जब वह हमारे गले एवं मुख से प्रवाहित होता है और तृतीय जब हम कानों द्वारा स्रवण करते हैं| हमारे तन में मंत्र का यह निरंतर आवागमन हमें सकारात्मक रूप से प्रभावित करता हैं|
हार्मोनीयम, तबला, ढोलक एवं झांज के साज़ में जप करना उत्तम है| श्री दत्त प्रभु को यह अत्यंत प्रिय है| श्री दत्त प्रभु ब्रम्हा, विष्णु एवं शिव के एकाकार साकार स्वरूप हैं|
उँचे स्वर में जप इसलिए नही करते हैं की किसी का ध्यान आकर्षित करना है| उँचे स्वर में जप करने से उस परिसर में सभी, चाहे वह मनुष्य हो या पेड़, पौधे, पक्षी या जीव-जन्तु, मंत्र के ध्वनि से प्रभावित होते हैं| इससे सारा वातावरण शुद्ध एवं उर्जावान हो जाता है| यही कारण है की हमारे मंदिर, आश्रम एवं सभी धार्मिक स्थान आध्यात्मिक रूप से उर्जावान हैं|