ॐ नमः शिवाय

शक्तिपात दीक्षा

मनुष्यमात्र में शक्ति का असीम भंडार है| किंतु ये शक्तियाँ अधिकतर सुषुप्तावस्था में होती हैं| जैसै सुप्त-शक्ति की कोई निष्पत्ति नही होती, वैसै ही जाग्रत होकर अनियंत्रित शक्ति की कोई सदवृत्ति नही होती है| शक्ति को जगाये बिना मनुष्य चरम और परम से वंचित्त ही रहता है| जहाँ शक्ति को जगाना जरूरी है वहीं जाग्रत शक्ति पर नियंत्रण भी जरूरी है| यह शक्तिपात दीक्षा से ही साध्य है, और शक्तिपात दीक्षा के लिए सदेह सदूगुरु का होना नितान्त आवश्यक है| आम धारणा के अनुसार दीक्षा यानि घर-बार त्यागना, जंगलों में आश्रम बनाकर रहना, धूनी रमाना, खाना-पीना छोड़ देना आदि| सच्चाई तो यह है कि दीक्षा में त्यागना कुछ भी नही, प्राप्त ही प्राप्त करना है| साधना का पथ पाना है, सदूगुरु की शरणागति पाना है| जब शरणागति सिद्ध हो जाती है फिर तो सदूगुरु मंत्र-शक्ति शिष्य में प्रतिष्ठापित कर देते हैं| शिष्य को अपने में समा लेते हैं| उसका मार्गदर्शन कर उसके सभी कष्टों और पापों को हर लेते हैं| शक्तिपात दीक्षा से जाग्रत की गई ‘माँ कुण्डलिनी शक्ति’ नियमित ध्यान-साधना से षटचक्र भेदन कर मूलाधार से सहस्रार तक जाकर शिव से संयोग करती है| तब समाधि घटती है, ब्रह्मज्ञान होता है| ध्यान रहे दीक्षा अभय का, आनंद का, मुक्ति का और अपने जीवन को सफल बनाने का एक साधन है, न कि भय और पलायन का| सदूगुरु योगमार्ग से शिष्य के शरीर में प्रवेश करके ज्ञान दृष्टि से ज्ञानवती दीक्षा देते हैं| उसे शाक्ति कहा है| यही शक्तिपात दीक्षा है| शक्तिपात के अनुसार ही शिष्य गुरु के अनुग्रह का भाजन बनता है| जिस शिष्य में गुरु की शक्ति का पात नही हुआ, उसमे शुद्धि नही आती तथा उनमे न तो विद्या, न मुक्ति और न ही सिद्धियाँ आती हैं| उत्कृष्ट बोध और आनंद की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण है क्योकि वह परमशक्ति प्रबोधनंदरूपिणी ही है|

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